मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसका स्वरुप
निर्मल और स्वच्छ होता है परन्तु सभ्यता , शिक्षा, संस्कृति और संस्कार
के आवरण से हम उसे ढ़कते चले जाते हैं या यूँ कहें कि अपने निर्मल मन का
दमन कर बुद्धि का विकास करते हैं। बुद्धि हमारे शरीर का एक ऐसा यंत्र है
जो कि इन्द्रियों द्वारा दी गई जानकारी से संचालित है। यह सत्य है कि
मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसने अपनी बुद्धि का सर्वाधिक विकास किया
तथा प्रकृति में अपनी नयी सत्ता कायम की परन्तु दुर्भाग्यवश अपनी ही
वास्तविकता से दूर होता चला गया।
किशोरावस्था
से ही मेरे अंदर ये द्वंद चलता रहा कि भाव इतने आतुर क्यों होते हैं ? न
ही ये तृप्त होते हैं न ही शांत, बस उभरते हैं अपने अस्तित्व का प्रदर्शन
कर लुप्त हो जाते हैं। यह पानी में उठने वाले बुलबुले जैसा है जो सतह पर
अपने अनिश्चित अस्तित्व के प्रदर्शन से हमें आकर्षित कर कुछ इस तरह विलीन
हो जाते हैं जैसे कभी उभरे ही नहीं। यह आकर्षक है परन्तु सत्य नहीं , सत्य
क्षणिक नहीं शाश्वत है। हमारा मन बहुत उपद्रवी है। अतृप्त और असंतोष मन
में ठहराव नहीं है। ऐसे ही कई प्रश्नों को खंगालने के बाद मुझे यह ज्ञात
हुआ कि एहसास प्रकृति के कण -कण में यथावत व्याप्त हैं परन्तु भावों का
रूपांतरण होता चला गया। प्रारम्भ में मैंने अपने प्रश्नों के उत्तर प्रकृति
में तलाशे क्योंकि मुझे ज्ञात था कि प्रकृति में निहित एहसासों के
प्राकट्य भाव भी शुद्ध हैं। उन्हें देख कर हम समझ सकते हैं की हमारे भाव
कितने स्वाभाविक हैं और कितने अस्वाभाविक। यही कारण है कि मेरे प्रारंभिक
कलाकृतियों में प्रकृति की भिन्न - भिन्न छटाओं को आसानी से देखा जा सकता
है परन्तु समय के साथ प्रश्नों का गूढ़ होना स्वाभाविक है। यह भी एक अद्भुत
बात है कि प्रश्न जितने गूढ़ होते हैं उनके उत्तर उतने ही सरल। हमारे अंदर
से उपजे प्रश्नों के उत्तर भी हमारे अंदर ही है। स्वयं को जानना संसार को
जानने से ज्यादा कठिन है।
सालों पहले
उपजे प्रश्नों के उत्तर आज मेरे सामने हैं परन्तु इन्हें यथावत स्वीकार
करना संभव नहीं। इन्हें स्वीकारने का अर्थ है अपने अस्तित्व की तिलांजलि दे
पुनः जन्म लेना। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों
से मैं इन जवाबों के मूल को तलाश रही थी। एहसासों और भावों के मूल को
समझें तो , एहसास आत्मा है और भाव रूप है अर्थात हम जो अनुभव करते हैं
उसका इन्द्रियों द्वारा प्राकट्य भाव है।मेरा मानना है भाव दो प्रकार के
होते हैं बाह्य भाव और आतंरिक भाव।
बाह्य भाव जो सभ्यता , शिक्षा,
संस्कृति और संस्कार की लक्ष्मण रेखा के अंदर बुद्धि और मन के रचे भ्रम का
प्राकट्य है, यहाँ एहसास का कोई अस्तित्व नहीं।यह परिस्थितियों के दबाव से
प्रकट होते हैं । बाह्य भाव अशांत , सतही ,उत्तेजित और अल्प अवधि के लिए होते हैं। बाह्य भाव भ्रम है।
आंतरिक
भावों में केवल एहसास और मन ही कार्यरत होते हैं बाकि सब नगण्य है, बुद्धि
का यहाँ कोई काम नहीं। यह मन की स्वच्छ्न्दता से प्रकट होते हैं। आंतरिक
भाव शाँत, गहरे, हठी और दीर्घकालीन होते हैं। आंतरिक भाव सत्य है।
हम अधिकतर बाह्य भाव में ही जीते हैं और
धीरे - धीरे यही सत्य हो जाता है , आंतरिक भावों की गहराई में डूबने से
डरते हैं और बाह्य भाव की सतह मजबूत करते चले जाते हैं। मेरी नई कृतियों
में इन जवाबों के सार को आप स्पष्ट महसूस कर सकेंगे। निराकार विषय होने के
कारण मेरी कृतियाँ भी अमूर्त हैं, जैसा
कि हम जानते हैं दुनिया में सबसे छोटे कणों को क़्वार्क्स कहते हैं और हर
कण की अपनी मूल संरचना होती है ऐसे ही अनगिनत कणों के संयोजन से ठोस आकर
बनता है। मेरा मानना है कि एहसासों की संरचना भी कुछ इसी तरह की है , हर
एक एहसास भिन्न -भिन्न अदृश्य अनगिनत सूक्ष्म कणों की संरचना है यही
कारण है कि मेरी कलाकृतियों में अलग -अलग रूपाकारों का संयोजन दिखता है तथा
इसमें प्रदर्शित रूपाकारों के संयोजन प्राकृतिक और वैज्ञानिक जगत से
प्राप्त कणों से पूर्णतः प्रभावित हैं। कलाकृतियों में इस अदृश्य सूक्ष्म
जगत की कोमलता और सत्यता को प्रदर्शित करना मुझे आनंदित करता है।